डॉ.लाल रत्नाकर
मेरी कला का क्षेत्र जितना भी है उसमें भारत के उन तमाम लोगों का हिस्सा है जिन्हें सामाजिक तौर पर सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूपसे व् कला या कलाकारों के हिस्से में तथा भारतीय राजनीती , शिक्षा , संस्कृति में ही कहीं जगह ही नहीं दी गयी है. यद्यपि साहित्य में तो प्रेमचंद जी ने काफी कुछ इनके बारे में लिखा है, यद्यपि यह आज विवादों में लाया जा रहा है की इसमे भी नाइंसाफी हुयी है, दलित साहित्यक|र इससे चिंतित एवं व्यग्र हैं की प्रेमचंद की दृष्टि, पीड़ित की दृष्टी नहीं रही है ? और इस आधार पर उक्त के सन्दर्भ में इसी लिए यह काम कलाओं के अन्य हिस्सों में बाकी है, उनके लिए जो सामाजिक और सांस्कृतिक यातनाओं के मध्य मानसिक रूप से पीड़ित रहने के लिए मजबूर किये जाते रहे हैं, सामाजिक गैर बराबरी के शिकार रहे है, बदलते परिवेश और माहौल शायद उन्हें बदल दे पर उनके पीछे उनका जो इतिहास खड़ा होगा वह उनके यथार्थ से कहीं भिन्न न हो क्योंकि इतिहास भी वही बनता है जो होता है, पर इस देश के अलमबरदार इस देश के लोगों के मध्य जिस तरह के भेदभाव किये है जो भारत ही क्या दुनिया के मेहनतकशों कि सोच और समझ को कुंद ही किया है क्योंकि इन्होंने नहीं इनसे जो इतिहास गढ़ा या गढ़वाया गया वह श्रृंगार और रस का ही रहा 'जहाँ पीड़ा में भी श्रृंगार की ही रचना की गयी है', वह या उनकी उस रचना में जिसमें स्त्री को केवल सज्जा की बस्तु बनाकर प्रस्तुत किया गया है. पूरे इतिहास में इस पर चुप रह या रहने दिया जाना ही उसके पूरे स्ततित्व में नारी को नाकारा जाना या केवल श्रृंगार या 'द्वारपालक या चावार्वाहक' के रूप में उपस्थित किया जाना मात्र ही है. और यहीं से शुरू होता है , उनको नाकारा जाना उनके साथ किये गए इस अन्याय का स्वरुप उजागर करता भारत का कथित गौरवशाली इतिहास. अब यदि इस पर चुप रहा गया तो वह एक गलत इतिहास को ही स्वीकारने और मानसिक अपराधियों और सामंती सोच को ही जन्म देगा.
भारतीय इतिहास कला और संस्कृति तथा उनका इस तरह का स्वरुप जिनसे उनके पूरे इतिहास को नकारा जाना उन लोगों के (मेरे भी) जीवन में या उनके जेहन में भी जहाँ इस तरह के पीड़ित के लिए जगह है के विचार को आगे लाना है जरुरी है. क्योंकि यही हालत हमारे इर्द गिर्द रोज ब रोज हो रहे है ये घटना कर्म हैं जिनमें न तो हिम्मत है और न ही इसके विरोध की मंशा और न ही समझ है. नया रचने और रचाने की.जिनसे और जिससे समझ आये कलाओं की शिक्षा केवल डिग्री हासिल करना न होकर और न हीं कलाओं का उद्देश्य अनुपयोगी. पर समाज के स्वरुप को अपने रचना कर्म के माध्यम से सबके समक्ष उजागर करना है. यहीं पर "पंडित द्वारिका प्रसाद मिश्र" की चंद पंक्तिया स्मरण हो जाती है -
कलाकार देता नहीं युग धारा का साथ,
बहती गंगा में नहीं धोता है वह हाथ.
पर आज हो इससे उलटा रहा है यहाँ महाकवि "गोपाल दास नीरज" की ये पंक्तियाँ कलाओं पर भी सटीक बैठती है जिनमें उन्होंने लिखा है -
ज्यों ही कहार लूट ले दुल्हन की पालकी,
हालत वही है आजकल हिन्दोस्तान की.
यदि हम भारत कि इस ऐतिहासिक धारा पर नए सिरे से कलाओं के स्वरुप पर चर्चा करें तो हैरानी होगी उनको जिन्होनें आँखें मूदकर अपने को परंपरागत काला उन्नायक के रूप में स्थापित किया हुआ है . उनकी करनी के अपराधों कि असलियत विभिन्न कला आयोजनों से है. यह है तो बहुत ही महत्व की बात, पर इतिहास उन्होंने अपने लिए रचा और गढ़ा है इसको तोड़ना या छोड़ना कितना जटिल है, नए इतिहास के लिए ठीक वैसे ही जैसे आज के उजागर होते भ्रष्टाचार, यदि ये उजागर न होते तो यही इतिहास होता.
"भारत क्या है, यह प्रश्न अक्सर हमारे मन में उभरता रहता है . हमारे एक शिक्षक कहा करते थे :”भारत को जानना है तो किताबें पढो, महापुरुषों के भारत सम्बन्धी विचार को जानो तब निकल जाओ भारत भ्रमण पर असली भारत का दर्शन भी हो ही जायेगा.” गाँधी ने भी गोखले से यही प्रश्न किया था और उन्हें भी भारत-भ्रमण का आदेश मिला था. सूट-बूट में भ्रमण को निकले गाँधी जब लौटे तो उनके पास बस एक लंगोट बची थी . तो चलिए हम भी भारत को जानने के क्रम में कुछ विद्वानों के भारत सम्बन्धी विचारों को संछेप में जानें : विश्व भर के इतिहासकारों,
लेखकों, राजनेताओं और अन्य जानी मानी हस्तियों ने भारत की प्रशंसा की है और शेष विश्व को दिए गए योगदान की सराहना की है। जबकि ये टिप्पणियां भारत की महानता का केवल कुछ हिस्सा प्रदर्शित करती हैं, फिर भी इनसे हमें अपनी मातृभूमि पर गर्व का अनुभव होता है।"
§ “हम सभी भारतीयों का अभिवादन करते हैं, जिन्होंने हमें गिनती करना सिखाया, जिसके बिना विज्ञान की कोई भी खोज संभव नहीं थी।!” - एल्बर्ट आइनस्टाइन (सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी,
जर्मनी) “
§ भारत मानव जाति का पालना है, मानवीय वाणी का जन्म स्थान है, इतिहास की जननी है और विभूतियों की दादी है और इन सब के ऊपर परम्पराओं की परदादी है। मानव इतिहास में हमारी सबसे कीमती और सबसे अधिक अनुदेशात्मक सामग्री का भण्डार केवल भारत में है!” - मार्क ट्वेन (लेखक, अमेरिका) “
§ यदि पृथ्वी के मुख पर कोई ऐसा स्थान है जहां जीवित मानव जाति के सभी सपनों को बेहद शुरुआती समय से आश्रय मिलता है, और जहां मनुष्य ने अपने अस्तित्व का सपना देखा, वह भारत है।!”- रोम्या रोलां (फ्रांसीसी विद्वान)
§ “भारत ने शताब्दियों से एक लम्बे आरोहण के दौरान मानव जाति के एक चौथाई भाग पर अमिट छाप छोड़ी है। भारत के पास उसका स्थान मानवीयता की भावना को सांकेतिक रूप से दर्शाने और महान राष्ट्रों के बीच अपना स्थान बनाने का दावा करने का अधिकार है। पर्शिया से चीनी समुद्र तक साइबेरिया के बर्फीलें क्षेत्रों से जावा और बोरनियो के द्वीप समूहों तक भारत में अपनी मान्यता, अपनी कहानियां और अपनी सभ्यता का प्रचार प्रसार किया है।” - सिल्विया लेवी (फ्रांसीसी विद्वान)
§ “सभ्यताएं दुनिया के अन्य भागों में उभर कर आई हैं। प्राचीन और आधुनिक समय के दौरान एक जाति से दूसरी जाति तक अनेक अच्छे विचार आगे ले जाए गए हैं. . . परन्तु मार्क, मेरे मित्र, यह हमेशा युद्ध के बिगुल बजाने के साथ और ताल बद्ध सैनिकों के पद ताल से शुरू हुआ है। हर नया विचार रक्त के तालाब में नहाया हुआ होता था . . . विश्व की हर राजनैतिक शक्ति को लाखों लोगों के जीवन का बलिदान देना होता था, जिनसे बड़ी तादाद में अनाथ बच्चे और विधवाओं के आंसू दिखाई देते थे। यह अन्य अनेक राष्ट्रों ने सीखा, किन्तु भारत में हजारों वर्षों से शांति पूर्वक अपना अस्तित्व बनाए रखा। यहां जीवन तब भी था जब ग्रीस अस्तित्व में नहीं आया था . . . इससे भी पहले जब इतिहास का कोई अभिलेख नहीं मिलता, और परम्पराओं ने उस अंधियारे भूतकाल में जाने की हिम्मत नहीं की। तब से लेकर अब तक विचारों के बाद नए विचार यहां से उभर कर आते रहे और प्रत्येक बोले गए शब्द के साथ आशीर्वाद और इसके पूर्व शांति का संदेश जुड़ा रहा। हम दुनिया के किसी भी राष्ट्र पर विजेता नहीं रहे हैं और यह आशीर्वाद हमारे सिर पर है और इसलिए हम जीवित हैं. . .!” - स्वामी विवेकानन्द (भारतीय दार्शनिक)
§ “यदि हम से पूछा जाता कि आकाश तले कौन सा मानव मन सबसे अधिक विकसित है, इसके कुछ मनचाहे उपहार क्या हैं, जीवन की सबसे बड़ी समस्याओं पर सबसे अधिक गहराई से किसने विचार किया है और इसकी समाधान पाए हैं तो मैं कहूंगा इसका उत्तर है भारत।” - मेक्स मुलर (जर्मन विद्वान)
§ “भारत ने चीन की सीमापार अपना एक भी सैनिक न भेजते हुए बीस शताब्दियों के लिए चीन को सांस्कृतिक रूप से जीता और उस पर अपना प्रभुत्व बनाया है।” - हु शिह (अमेरिका में चीन के पूर्व राजदूत)
§ “दुनिया के कुछ हिस्से ऐसे हैं जहां एक बार जाने के बाद वे आपके मन में बस जाते हैं और उनकी याद कभी नहीं मिटती। मेरे लिए भारत एक ऐसा ही स्थान है। जब मैंने यहां पहली बार कदम रखा तो मैं यहां की भूमि की समृद्धि, यहां की चटक हरियाली और भव्य वास्तुकला से, यहां के रंगों, खुशबुओं, स्वादों और ध्वनियों की शुद्ध, संघन तीव्रता से अपने अनुभूतियों को भर लेने की क्षमता से अभिभूत हो गई। यह अनुभव कुछ ऐसा ही था जब मैंने दुनिया को उसके स्याह और सफेद रंग में देखा, जब मैंने भारत के जनजीवन को देखा और पाया कि यहां सभी कुछ चमकदार बहुरंगी है।” - किथ बेलोज़ (मुख्य संपादक, नेशनल जियोग्राफिक सोसाइटी)
उक्त विचार जिस ब्लॉग 'जनोक्ति' से लिया गया है उन्होंने उसमें उस ज़माने की प्रशंसा की जा रही है जब लोगों की नियति पर उतना संदेह नहीं रहा होगा, पर उसका मूर्तन स्वरुप तो समकालीन ही होता है. जब सब कुछ ऐसे हो रहा था तब कितना विरोध हुआ होगा इसका इतिहास किससके पास होगा. पर आश्चर्य होता है की इस देश में केवल और केवल एक ही जाती के लोग ताल ठोंक कर तमाम रचनात्मक विधायों पर काबिज हैं जिनसे देश की शक्ल बनती हो, एसी शक्ल बनाने वाले लोग उन्हें ही 'दगा' देते है जो सस्कृति रचते और गढ़ते आये हैं, यथा - कुम्हार, बढ़ई, लोहार, दर्जी, सोनार, चर्मकार ,धरिकार, नाइ, धोबी, भंगी, कहार,तेली, माली, किसान एवं तमाम वो लोग जो रचना से जुड़े हैं.
उक्त के सरोकारों से मेरा लगाव कहें या उनकी समझ कहें या यह कहें की उनको जिस रूप में चित्रित किया गया वह वही श्रृंगारिक स्वरुप रहा है जिसकी ऊपर चर्चा होती रही है, क्या यही उनका अलंकार,रस, सौंदर्य उत्पत्ति रही है,या यह समझें की उनकी शिल्पी रूपी दक्षता और यदि दक्षता का आधार कला की आज़ादी प्रदान करना नहीं था तो उनका शास्त्रीय आधार क्या करता ? कहीं न कहीं एसा है जो कुछ भी कर गुजरने का अवसर प्रदान करता पर शास्त्रीयता ही नियंत्रण का कारण बनी, जिसे नियंत्रण में सुबिधा हुयी और यही कारण है की राष्ट्रीय प्रतिभा की जगह अपनी इक्षाओं तथा संबंधों को तरजीह दी जाती है - दी जा रही है, दी जाती रही है, यही प्रवृत्ति लगभग पूरे कला के के रचनाकारों के समाज में देखने को मिल रही है पर लगभग सब कुछ शांत है .
अक्सर यह प्रवृत्ति तब और भयावह हो जाती है जब इन पर सरकारी हमले होते है और उनके विकास के नाम पर षड्यंत्रकारी नियमों के वे शिकार हो जाते है , और उद्योगपतिओं के या दलालों के मध्य उनका विलोप हो जाता है, सांस्कृतिक निति निर्धारण में भी रचनाकार का हित नगण्य हो जाता है , और उत्पन्न होता है भ्रष्टाचार का रचनाकर्म इस प्रकार कि साजिश निरंतर सलीके से चल पड़ेगी पर सामर्थ्य कि महत्ता प्रभावी होती दिखाई देने लगती है , जो संभवतः समझ कि नहीं होती .
इनका एक स्वरुप और देखने को मिलता है जब देश या प्रदेशों में विरोधी (गैर कांग्रेसी-भाजपा) सरकारें होती है, तब इनको लगता है की कहीं कोई बदलाव न हो जाय, यही हाल हर-बार होता आया है पर इनमें एक बड़ा खतरा यह भी है कि जिनको यह मौका मिलता है धीरे धीरे वह अपना स्वरुप ही बदल लेता है और उन्ही विचारधाराओं को तेजी से बढ़ाने में लग जाते है जिससे यह तथ्य और 'मज़बूत' हो जाते है कि अब तक जो कुछ हो रहा है वह ठीक है. अतः बदलाव कि सारी प्रक्रिया ही मंद पड़ जाती है जिससे राजकीय उम्मीदें दबकर रह जाती है. इसकी दो तरह से दृष्टियाँ बनती है पहली दृष्टि ऊपर कि और दूसरी निचे कि दृष्टव्य हैं -
इस देश का "मास मीडिया भी तय करता है कि हम कौन से त्यौहार मनाएं। वेलंटाइन डे, संतोषी मां का व्रत और अब तो तय है कि हेलोवीन भी राष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाएगा। कैसेट क्रांति से पहले वेष्णो देवी देश के एक हिस्से की देवी थीं। टीवी सिरियलो ने भी कई देवी-देवताओं को स्थापित किया है। कार्ड और गिफ्ट कंपनियों ने इस देश को कई उत्सव दिए हैं। करवा चौथ को राष्ट्रीय विस्तार मिलते सबने देखा। इसमें टीवी चैनलों और सिनेमा की भूमिका रही है।और कमोबेश यही हाल सामाजिक सरोकारों का भी है देश में लगभग 2.5 करोड़ क्रिश्चियन हैं। कहते हैं कि सर्वधर्म समभाव है और उनके त्यौहार खासकर महानगरों में सभी मनाते हैं। बाकी जगहों पर भी मनाते होंगे...इसी देश में इनसे चार गुना आदिवासी हैं, जिनके अपने पर्व-त्योहार हैं। उनके त्यौहारों के बारे में क्या हम जानते भी हैं? सत्ता और सत्ता के एक हिस्से के तौर पर Mass Media जो नहीं चाहता, वह हम नहीं जानते। जो समृद्ध नहीं हैं, शहरी नहीं हैं और पावरफुल नहीं हैं, उनकी परवाह किसे है?"
ये दोनों उदहारण 'दिलीप मंडल' के फेसबुक से लिए गए है.
यही हाल कमोबेश कलाओं का है जहाँ नामचीन नामों के पीछे का सच मुश्किल से निकल पाता है और रातों रात एक कलात्मक साम्राज्य खड़ा कर लिया जाता है जिसमें वही होते हैं जिनकी अब तक चर्चा होती रही है. बड़े नौकरशाह या उन नौकरशाहों कि बीबियाँ, जब कि इनके आधार ही 'शास्त्रीय' हैं और उन्ही शास्त्रीय आधारों पर इस तरह के कला स्तम्भ खड़े किये जा रहे हैं.
और इसी तरह के तमाम उदाहरणों से सारा सांस्कृतिक समाज भरा पड़ा है जहाँ से निकलती है कलात्मक आन्दोलनों कि त्रिवेणी और फलती फूलती है भ्रष्टाचारी दृष्टि और अनैतिकता . और यहीं से शुरू होती है भारत के स्वाभिमान कि शुरुआत और जातीय अहंकार की प्रवंचना का विस्तार ! चलिए हम तय करते हैं की परिवर्तन की रूप रेखा -
१. समूचे संसद में सांस्कृतिक कर्मियों की जगह किसने ली है की सूचि का सूचना अधिनियम के तहत माँगा जाना माँगा जाना .
२. सभी कला अकादमियों के अध्यक्षों की सामाजिक (जातीय) साहित्यिक तथा क्षेत्रीय और राजनैतिक विचारधारा और उपलब्धियां कलाओं के क्षेत्र में !
३. सभी कला अकादमियों के प्रसाशनिक अधिकारीयों की नियुक्ति के अधर एवं उनकी सामाजिक (जातीय) साहित्यिक तथा क्षेत्रीय और राजनैतिक विचारधारा और उपलब्धियां कलाओं के क्षेत्र में
!
४. पुरष्कारों एवं राष्ट्रीय छात्रवृतियों का विभाजन ?
५. कलात्मकता का मानदंड राष्ट्रीय अन्तराष्ट्रीय कैम्पों की सहभागिता सूचि का प्रकाशन , आज़ादी या विभिन्न अकादमियों के गठन के उपरांत सामाजिक आधार पर उनकी सूचना !
६.सृजनात्मक का आधार और हमारी कला उपलाब्द्धियाँ .
७.अनुदानात्मक धन प्रदान करने की योजना और उनका विभाजन किन किन क्षेत्रों में उनका कितना हिस्सा आम आदमी की कला पर खरचा गया है ?
८.अंतर्राष्ट्रीय
९.योजनात्मक
१०.अन्य
यह एक घटना ही है की मुरली लहूटी ने मुझे (लेखक) को पुणे बुलाया और कई ऐसी जगह ले गए जहाँ कलाकृतियाँ फैली पड़ी है जिनमें से एक दृश्य नीचे है -